मेथी का भारत में उगाये जाने वाले मसालों में प्रमुख स्थान है। इसकी खेती मुख्य रूप से बीजों के लिए की जाती है। मेथी पत्तीदार हरी सब्जी एवं चारे के लिए भी उगाई जाती है। इसके बीज भोज्य पदार्थ को सरस व सुगंधित बनाने में प्रयोग होते हैं। मसालों के अलावा दवाओं में भी मेथी के दाने प्रयोग में लिए जाते हैं। मेथी का बीज शांतिदायक, मूत्रवर्धक, शक्तिवर्धक, वायुनाशक, पोषक व कामोद्दीपक होते हैं ।
जलवायु
मेथी ठण्डे मौसम की फसल है तथा पाले व लवणीयता को भी कुछ स्तर तक सहन कर सकती है। मेथी की प्रारम्भिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु तथा कम तापमान उपयुक्त है। परन्तु पकने के समय ठण्डा व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद है। मेथी की अच्छी उपज के लिए अनुकूल तापमान 15-28 डिग्री सेल्सियस होता है।
भूमि
मेथी अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जैविक पदार्थ युक्त सभी प्रकार की भूमि में उगायी जा सकती है। दोमट मिट्टी इसके लिए उत्तम रहती है। अच्छी खेती के लिए भूमि का पी. एच. मान 6-7 के मध्य होना चाहिए।
खेत की तैयारी
भारी मिट्टी में खेत की 3 से 4 व हल्की मिट्टी में 2 से 3 जुताई करके पाटा लगा देना चाहिये तथा पूर्व फसल के अवशेष एवं खरपतवार निकाल देना चाहिये। दीमक एवं भूमिगत कीटों की समस्या होने पर इनकी रोकथाम के लिए अन्तिम जुताई के समय एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत या क्यूनालफॉस 5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में मिला देना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 10-15 टन प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में अच्छी तरह मिला देवें। इसके अलावा 20 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व खेत में उर कर देवें। यदि खेत की उर्वरा शक्ति अच्छी हो तो नत्रजन की मात्रा कम कर देनी चाहिए।
उन्नत किस्में
किस्में | औसत उपज (कि.ग्रा./ हैक्टर) | विशेषता |
राजेन्द्र क्रान्ति | 1300 | शीघ्र परिपक्वता, खरीफ और रबी दोनों ऋतुओ में अंतराशस्य हेतु उपयोगी और छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग सहनशील |
आर.एम.टी.- 143 | 1600 | भारी मृदाओ के लिए उपयोगी |
आर.एम.टी.- 303 | 1900 | मध्यम अवधि में पकने वाली |
ए.एम.- 01-35 | 1720 | द्विउद्देशीय, छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग सहनशील |
हिसार मुक्ता | 2000 | बीज उत्पादन हेतु उपयोगी, मध्यम अवधि में पकने वाली और सिंचित व वर्षा आधारित क्षेत्रों हेतु उपयोगी |
हिसार माधवी | 1900 | तीव्र बढ़वार, सीधी व लम्बी, द्विउद्देशीय और सिंचित व वर्षा आधारित क्षेत्रों हेतु उपयोगी |
पंत रागनी | 1200 | द्विउद्देशीय, तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) व जड़ गलन रोग रोधी |
गुजरात मेथी-1 | 1860 | बौना पौधा, गुजरात राज्ये के लिए विकसित पहली किस्म |
हिसार सोनाली | 1700 | द्विउद्देशीय |
सी.ओ-1 | 680 | द्विउद्देशीय, शीघ्र परिपक्वता |
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
मेथी की खेती के लिये 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। बुवाई से पूर्व बीज को 2 ग्राम बाविस्टीन या 4-6 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।
बुवाई का तरीका एवं समय
मेथी की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह के मध्य करनी चाहिये। बुवाई के समय कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी क्रमश: 30 से.मी व 10 से.मी रखनी चाहिए तथा बीजों की गहराई 5 से.मी से अधिक नहीं रखनी चाहिए।
सिंचाई
बुवाई के बाद हल्की सिंचाई करें उसके बाद आवश्यकतानुसार 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई की संख्या मृदा की संरचना व जलवायु पर निर्भर करती है। अच्छी जलधारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाई पर्याप्त हैं। फसल में फलियों व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहनी चाहिए।
खरपतवार नियन्त्रण
बुवाई के 25-30 दिन बाद प्रथम निराई गुड़ाई कर पौधों की छटाई करें जिससे पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी कर देनी चाहिए। दूसरी निराई गुड़ाई बुवाई के 50-55 दिन बाद करनी चाहिए। खरपतवार नियन्त्रण हेतु रसायनों में फ्लूक्लोरेलिन 0.75 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व बुवाई से पूर्व या पेण्डामिथालिन 0.75 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से 750 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दूसरे दिन छिड़काव करके भी खरपतवार नियन्त्रण कर सकते हैं। छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
मेथी के प्रमुख कीट एवं रोकथाम
मोयला (एफिड): मेथी में रस चूसक कीटों में मोयला प्रमुख है। यह पीले हरे रंग का सूक्ष्म कोमल शरीर वाला अंगकार कीट है। इसे चैंपा भी कहते हैं। इस कीट का प्रकोप फरवरी – मार्च महीने में फूल आते समय अधिक होता है और फसल में दाना पकने तक रहता है। पौधे के उपरी भाग के सभी अंगों पर स्थायी रूप से झुण्डों में चिपककर व रस चूसकर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। तथा पोधों पर इस कीट द्वारा मीठा पदार्थ छोड़ने से काली फफूंद पनप जाती है।
नियन्त्रण
1. खेत की साफ सफाई का ध्यान रखें एवं खेत में खरपतवार नहीं पनपने देवें।
2. कीट के प्रकोप की निगरानी रखते हुये पीले चिपचिपे पाश (ट्रेप) काम में लेवें। दस पीले चिपचिपे पाश प्रति हैक्टेयर के लिए पर्याप्त हैं।
3. मोयले के रासायनिक नियन्त्रण के लिए क्यूनालफॉस 25 ई. सी. का 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। इसके अतिरिक्त डाइमिथोएट (30 ई.सी.) 0.03 प्रतिशत या फास्फॉमिडॉन (85 डब्ल्यू.एस.सी.) 0.03 प्रतिशत या मैलाथियान (50 ई.सी.) 0.1 प्रतिशत का प्रति हेक्टर 500-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए एवं आवश्यकता होने पर 10-15 दिन के अन्तराल पर पुनः छिड़काव करें।
बरुथी (माईटस्): बरूथी अति सूक्ष्म जीव है जिसका प्रकोप मेथी में मोयला की अपेक्षाकृत कम रहता है। इसका प्रकोप पौधों की नई पत्तियों में अधिक रहता है।
नियन्त्रण
बरूथी के नियंत्रण हेतु इथियॉन (50 ई.सी.) का 0.02 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मेथी के प्रमुख रोग एवं रोकथाम
छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू): मेथी में छाछया रोग ईरीसाइफी पोलीगोनाई नामक कवक द्वारा होता है। यह रोग होने पर प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है। रोग का प्रकोप अधिक होने पर पूरा पौधा चूर्ण से ढक जाता है। रोगग्रसित पौधे पीले व कमजोर हो जाते हैं। पत्तियाँ झड़ने लगती हैं। इससे बीज की उपज एवं गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
नियंत्रण
- छाछया रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत या केराथेन एल. सी. 0.1 प्रतिशत का पानी में 500 लीटर घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
- गन्धक के चूर्ण का 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए।
- मेथी की पछती बुवाई में रोग अधिक लगता है । इसलिए समय पर बुवाई करें ।
- रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन कर बुवाई करें ।
तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू): यह रोग पेरोनोस्पोरा नामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में पत्तियों की निचली सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है व उपरी सतह पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं।
नियन्त्रण
1. फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर छिड़काव 10-15 दिन बाद दोहराना चाहिए।
2. फसल चक्र अवश्य अपनायें।
3. पौधों की सघनता एवं अधिक सिंचाई से रोग शीघ्र फैलता है। इसलिए पौधों के मध्य समुचित दूरी एवं सिंचाई का उचित प्रबन्धन करें।
पर्ण धब्बा (लीफ स्पॉट): मेथी में यह रोग सरकोस्पोरा नामक कवक से होता है इस के प्रथम लक्षण पौधों की पत्तियों व तनों पर बड़े-बड़े धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं। रोगी पौधों की पत्तियाँ झड़ने लगती हैं तथा उपज में भारी कमी आ जाती है ।
नियन्त्रण
1. रोग के लक्षण दिखाई देते ही फसल पर मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत या कार्बण्डाजिम 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार 15 दिनों बाद छिड़काव को दोहरावें। 2. पौधों के मध्य दूरी एवं सिंचाई का उचित प्रबन्धन करें।
3. रोगरोधी किस्मों का चयन कर बुवाई करें।
कटाई, गहाई एवं भण्डारण
मेथी की फसल लगभग 130 से 150 दिन में पक कर तैयार हो जाती है जब पौधों की पत्तियाँ पीले रंग की होकर झड़ने लगें तो पौधों को दांतली से काट कर खेत में छोटी छोटी ढेरियों के रूप में रख देवें। सूखने के बाद दाने कूटकर अलग कर लेवें। साफ दानों को पूर्ण रूप से सुखाकर (9-10 प्रतिशत नमी) साफ बोरियों में भरकर हवादार नमी रहित गोदामों में रखें।
उपज- उन्नत तकनीक द्वारा खेती करने पर मेथी की औसतन उपज 20 से 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।
लेखक विवरण
(अशोक कुमार मीणा, भरत लाल मीणा*, गिरधारी लाल यादव एवं जगपाल जोगी)
श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर, जयपुर (राजस्थान)
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